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कुंभ मेला


कुंभ मेला

कुम्भ मेला


मेले तो बहुत सारे है पर कुंभ मेले का अपना अलग ही महत्व है। कुंभ मेला पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। कुंभ मेले में एक करोड़ से भी  अधिक लोग शामिल होते है जो की अपने आप में एक रिकार्ड है। कुंभ मेले का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ  वैज्ञानिक महत्व भी है।  तो चलिये अब हम कुंभ मेले का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व भी समझते है।  

कुंभ मेले का इतिहास


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कुम्भ स्नान 

कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी।

मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है। 12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। जबकि कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था।

कुंभ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियाँ हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं।




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राशियों और ग्रहों से कुंभ का संबंध


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कुम्भ २०१९

कुंभ मेला किसी स्थान पर लगेगा यह राशि तय करती है। वर्ष 2019 में कुंभ मेला प्रयागराज  (इलाहाबाद) में लग रहा है। इसका कारण भी राशियों की विशेष स्थिति है। 

कुंभ के लिए जो नियम निर्धारित हैं उसके अनुसार प्रयाग में कुंभ तब लगता है जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष राशि में होता है।

कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब हरिद्वार में कुंभ लगता है। 1986, 1998, 2010 के बाद अब अगला महाकुंभ मेला हरिद्वार में 2021 में लगेगा। 

सूर्य एवं गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र ) में होता है ।

गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में कुंभ लगता है।

कुंभ में महत्वपूर्ण ग्रह 

कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए इन्हीं ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंभ का आयोजन होता है। सागर मंथन से जब अमृत कलश प्राप्त हुआ तब अमृत घट को लेकर देवताओं और असुरों में खींचा तानी शुरू हो गयी। ऐसे में अमृत कलश से छलक कर अमृत की बूंद जहां पर गिरी वहां पर कुंभ का आयोजन किया गया। 

अमृत की खींचा तानी के समय चन्द्रमा ने अमृत को बहने से बचाया। गुरू ने कलश को छुपा कर रखा। सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से रक्षा की। इसलिए जब इन ग्रहों का संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ का अयोजन होता है। क्योंकि इन चार ग्रहों के सहयोग से अमृत की रक्षा हुई थी। 





12 वर्ष नहीं हर तीसरे वर्ष लगता है कुंभ 


गुरू एक राशि लगभग एक वर्ष रहता है। इस तरह बारह राशि में भ्रमण करते हुए उसे 12 वर्ष का समय लगता है। इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है। 

महाकुंभ के संबंध में मान्यता


शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है। 

सिर्फ इन चार शहरों में होता है कुंभ का आयोजन

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कुम्भ कलश 


कुंभ का अर्थ होता है कलश या घड़ा। देवताओं और असुरों की खिचा तानी में    अमृत कलश से अमृत छलक कर जिस जगह पर गिरा था वहाँ-वहाँ महाकुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।   

भारत में सिर्फ चार शहरों में होता है कुम्भ मेले का आयोजन और वो चार शहर है 1) प्रयागराज  2) हरिद्वार 3) उज्जैन 4) नाशिक    



कुम्भ 2019 प्रयागराज के प्रमुख स्नान 

पौष पूर्णिमा  सोमवार  21- 01 - 2019

माघी एकादशी  गुरुवार  31- 01 - 2019

मौनी अमावस्या  सोमवार  04- 02 - 2019

वसंत पंचमी  रविवार  10- 02 - 2019

माघी एकादशी  शनिवार  16- 02 - 2019

माघी पूर्णिमा  मंगलवार  19- 02 - 2019




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